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नई दिल्ली, 16 अप्रैल 2025
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के अकोला जिले में पातुर नगर परिषद के साइनबोर्ड पर उर्दू भाषा के उपयोग को सही ठहराते हुए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने उर्दू को “गंगा-जमुनी तहजीब और हिंदुस्तानी संस्कृति का बेहतरीन नमूना” करार दिया और कहा कि भाषा का उद्देश्य संचार है, न कि लोगों को बांटना।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने एक पूर्व पार्षद वरषाताई संजय बगाडे की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें पातुर नगर परिषद भवन के साइनबोर्ड पर उर्दू के उपयोग को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया था कि महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022 में उर्दू के उपयोग पर कोई रोक नहीं है।

जस्टिस धूलिया ने अपने फैसले में कहा, “उर्दू भारत की मिट्टी से पैदा हुई भाषा है। इसे किसी धर्म से जोड़ना गलत है। 2001 की जनगणना के अनुसार, उर्दू भारत की छठी सबसे अधिक बोली जाने वाली अनुसूचित भाषा है, जो देश के लगभग सभी हिस्सों में बोली जाती है।” कोर्ट ने भारत की भाषाई विविधता की सराहना करते हुए कहा कि हमें अपनी सैकड़ों भाषाओं और बोलियों का सम्मान करना चाहिए।

यह मामला तब शुरू हुआ जब याचिकाकर्ता ने दावा किया कि साइनबोर्ड पर केवल मराठी भाषा का उपयोग होना चाहिए। जिला कलेक्टर ने उनके पक्ष में आदेश दिया था, लेकिन मंडलायुक्त ने इसे पलट दिया। इसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी याचिका खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले में हस्तक्षेप से इनकार करते हुए याचिकाकर्ता के तर्क को कानून की गलत व्याख्या पर आधारित बताया।

यह फैसला न केवल उर्दू भाषा की संवैधानिक मान्यता को मजबूत करता है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता और समावेशी पहचान को भी रेखांकित करता है। सामाजिक और कानूनी विशेषज्ञों ने इस फैसले को भाषाई समानता और सामाजिक समन्वय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया है।
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